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आयुर्वेद में त्रिदोष सिद्धांत: शरीर, मन और स्वास्थ्य का संपूर्ण रहस्य

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आयुर्वेद का दर्शन ‘स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणम्, आतुरस्य विकार प्रशमनम्’ पर आधारित है, जहाँ शरीर और मन के पूर्ण स्वास्थ्य की अवधारणा त्रिदोष सिद्धांत से निकलती है। वात, पित्त और कफ — ये तीन दोष शरीर के सभी जैविक, मानसिक और भावनात्मक क्रियाओं के नियंत्रणकर्ता हैं। जब इन दोषों का संतुलन बिगड़ता है तो छोटे से लेकर गंभीर रोग तक जन्म ले सकते हैं। आज इस लेख में उन्हीं त्रिदोषों का विस्तार से विवेचन प्रस्तुत है, जिससे आप अपने स्वास्थ्य, प्रकृति और जीवनशैली को सही दिशा दे सकते हैं।


त्रिदोष की परिभाषा

“दोष” आयुर्वेदिक शब्दावली में उन जीव शक्ति, प्रक्रियाओं या जैविक ऊर्जा का संकेत करता है जो शरीर में गतिशीलता, रूपांतरण और संरचना को नियंत्रित करती हैं।

  • वात (Vata): गति, परिवहन, संचार और शरीर के क्रियात्मक घटक।

  • पित्त (Pitta): उपचयन, पाचन, रूपांतरण और ऊर्जा का संचार।

  • कफ (Kapha): बंधन, स्थिरता, स्नेहन, जोड़ना और आदान प्रदान।

चरक संहिता के अनुसार: “वातं पित्तं कफं चैव त्रयं दोषाः शरीरगाः।”
(वात, पित्त और कफ — ये तीनों शरीर में प्रवाहित होकर उसके स्वास्थ्य, बल और कार्य क्षमता को नियंत्रित करते हैं।)

त्रिदोष तथा पंचमहाभूत से सम्बन्ध

आयुर्वेद के अनुसार, संपूर्ण सृष्टि पांच महाभूतों — आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी — से बनी है। त्रिदोष, इन्हीं पंचमहाभूत का सूक्ष्म रूप हैं:

दोषमहाभूतों का योग
वातआकाश + वायु
पित्तअग्नि + जल
कफजल + पृथ्वी
  • वात में गति, हल्कापन, ठंडापन, सूक्ष्मता, शुष्कता और चंचलता।

  • पित्त में तेज, उष्णता, द्रवता, तीक्ष्णता और तिक्तता।

  • कफ में स्थिरता, स्निग्धता, भारीपन, ठंडापन और मृदुता।


दोषों की विस्तार से प्रकृति, गुण व कार्य

1. वात दोष

गुण: शुष्क, लघु, शीत, चल, सूक्ष्म, खर
कार्य:

  • सांस लेना-छोड़ना

  • परिसंचरण

  • स्नायु प्रणाली

  • विचार-क्रिया, स्पन्दन

  • हड्डियों की गति

  • मल-मूत्र निष्कासन
    लक्षण (बैलेंस): स्फूर्ति, रचनात्मकता, तेज सोच
    लक्षण (डिस्बैलेंस): चिंता, अनिद्रा, जोड़दर्द, कब्ज, नाड़ी दुर्बलता

2. पित्त दोष

गुण: तिक्त, उष्ण, तीक्ष्ण, सर, द्रव, लघु
कार्य:

  • पाचन क्रिया

  • शरीर का ताप संतुलन

  • बुद्धि, समझ, तेजस्विता

  • रक्त निर्माण

  • भूख-प्यास
    लक्षण (बैलेंस): तीक्ष्ण बुद्धि, अच्छा पाचन
    लक्षण (डिस्बैलेंस): जलन, एसिडिटी, गुस्सा, त्वचा रोग

3. कफ दोष

गुण: भारी, शीतल, स्थिर, मंद, स्निग्ध
कार्य:

  • शरीर को जोड़ना

  • स्नेहन और पोषण

  • प्रतिरक्षा

  • मानसिक शांति

  • संयोजन, बल और ताकत
    लक्षण (बैलेंस): स्थिरता, शांत मन, मजबूत प्रतिरक्षा
    लक्षण (डिस्बैलेंस): सुस्ती, मोटापा, सर्दी, सूजन


दोषों के उपभेद (Subtypes)

वात के 5 उपभेद

  1. प्राण वात: सिर–हृदय, श्वास, मन-बुद्धि

  2. उदान वात: वाणी, गले की ताकत, स्मृति

  3. व्यान वात: बहिर्मुखी गति, रक्त परिसंचरण

  4. अपान वात: मल-मूत्र, प्रजनन

  5. सामन वात: पाचन और पोषण

पित्त के 5 उपभेद

  1. पाचक: आमाशय–पाचन

  2. रंजक: यकृत–रक्त

  3. साधक: हृदय–मानसिक प्रक्रिया

  4. अलोचक: नेत्र–रूप

  5. ब्रजक: त्वचा–तेज और रंग

कफ के 5 उपभेद

  1. अवलंबक: छाती–बल

  2. क्लेधिक: गला–स्नेहन

  3. भोदक: जिह्वा–स्वाद

  4. तर्पक: सिर–स्नेहन

  5. श्लेष्मक: जोड़–चिकनाई


त्रिदोष का स्थान (Location in Body)

दोषमुख्य स्थानअतिरिक्त स्थान
वातबड़ी आंत, नाभि, तिल्लीहड्डियाँ, कर्ण, त्वचा
पित्तआमाशय, यकृत, नेत्ररक्त, स्वेद, हृदय
कफछाती, गला, सिरजिह्वा, जोड़, पेट
  • वात: कमर से नीचे (पैर, पेट, लघु आँत)

  • पित्त: छाती से कमर (आमाशय, यकृत, रक्त)

  • कफ: छाती से सिर (छाती, गला, मस्तिष्क)


दोष असंतुलन से होने वाली बीमारियाँ

वात असंतुलन से

  • जोडों में दर्द

  • गठिया, स्नायु विकार

  • गैस, कब्ज

  • नाड़ी दुर्बलता, हड्डियों की समस्या

  • अवसाद, चिंता, अनिद्रा

पित्त असंतुलन से

  • पेट की जलन, अल्सर

  • त्वचा रोग, पीलिया

  • उच्च रक्तचाप

  • आँखों की कमजोरी/दृष्टि

  • गुस्सा, चिड़चिड़ापन

  • सिरदर्द

कफ असंतुलन से

  • मोटापा, सुस्ती

  • सर्दी, खाँसी

  • मधुमेह, वजन बढ़ना

  • सूजन, साइनस, जोड़ों की बिमारी

  • पाचन मंदता

अनुमान के अनुसार आयुर्वेद में 80-100 से अधिक बीमारियाँ एकल या संयुक्त दोषों के असंतुलन से पैदा होती हैं।


रोगों की विस्तृत तालिका

दोष असंतुलनप्रमुख रोग
वातआथ्राइटिस, पार्किंसन, कब्ज, सिरदर्द
पित्तअल्सर, डर्मेटाइटिस, पीलिया, एसिडिटी
कफडायबिटीज, मोटापा, साइनस, अस्थमा
मिश्रितउच्च रक्तचाप, दिल के विकार, त्वचा रोग

दोष संतुलन के उपाय

  • आहार: दोषानुसार चुनें, वात-वर्धक चीजें कम; पित्त-वर्धक चीजें शीतल; कफ-वर्धक भारी/तैलीय कम

  • व्यायाम: दोष प्रकृति अनुसार योग, प्राणायाम, ध्यान

  • दिनचर्या: ऋतु और दोष-अनुरूप

  • आयुर्वेदिक चिकित्सा: त्रिफला, अश्वगंधा, ब्राह्मी, नीम, त्रिकटु, सौम्य पंचकर्म

  • शुद्धि: मलमूत्र त्याग, स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन

 

चरक संहिता और सुश्रुत संहिता, दोनों महर्षियों ने दोषों से होने वाले रोगों की स्पष्ट गणना दी है:

  • वात दोष से उत्पन्न रोगों की कुल संख्या: 80

  • पित्त दोष से उत्पन्न रोगों की कुल संख्या: 40

  • कफ दोष से उत्पन्न रोगों की कुल संख्या: 20

संदर्भ:

  • चरक संहिता, सूत्रस्थान— “अष्टौ विंशति वातजा: चत्वारिंशत् पित्तजा: विंशति कफजा:।”

  • सुश्रुत संहिता में भी यही गणना स्वीकार की गई है।

अर्थात्,

  • वातजन्य रोग: 80

  • पित्तजन्य रोग: 40

  • कफजन्य रोग: 20

इनकी अलग-अलग लक्षण, प्रकार और उपचार विस्तार से आयुर्वेद के ग्रंथों में वर्णित हैं। संयुक्त दोषों (सन्निपातज या द्विदोषज) के भी कई रोग माने गए हैं, जिनकी गणना इन मूल संख्याओं में नहीं आती।


निष्कर्ष

त्रिदोष सिद्धांत आयुर्वेद की आत्मा है — यही स्वास्थ्य, जीवन शैली और रोगों के मूल कारण को समझने का सबसे वैज्ञानिक और व्यावहारिक मार्ग है। दोषों का संतुलन, व्यक्ति विशेष की प्रकृति और दिनचर्या के अनुसार, रोगमुक्त, आनंद, ऊर्जा और संतुलित जीवन की कुंजी है। आयुर्वेद के अनुसार शरीर, मन और आत्मा का त्रिदोष-संतुलन ही सम्पूर्ण स्वास्थ्य का स्रोत है।